बड़ी दुर्भाग्य की बात है की वर्ष 2008 में भारत में मौलाना अबुल कलाम आजाद के जन्मदिन पर 11 नवंबर को ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ घोषित किया गया । यह भारत के शैक्षिक-सांस्कृतिक पतन का ठोस प्रमाण ही नही कारण भी है, ऐसे शिक्षा के ऐसे क्षुद्र राजनीतिकरण पर भी कोई किसी ने आवाज नही उठाया । अधिकांश बौद्धिक हर साल इस दिन को मौलाना आजाद का गुणगान करना अपना कर्तव्य समझते हैं। एक ऐसे जो कभी भी स्कूल का मुंह तक नही देखा न कभी कोई स्कूल में पढ़ा | मदरसा में मौलाना पढ़ा व्यक्ति जवाहर लाल नेहरु के नजदीकिय कहे कृपा से देश का पहला शिक्षा मंत्री बनाया गया | पुरे देश के शिक्षा व्यस्था को तहस नहस कर दिया पुरे गुरुकुल परम्परा को खत्म कर इस्लामिक को बढ़ावा देने का भरसक प्रयास और काफी हद तक सफल भी रहा | इनके करतूतों को आज भी देश भुगत रहा है | इन्ही की करतूत थी हमारे देश के महान विभूतियों को नीचा दिखा कर अकबर महान के परम्परा शुरू किया | इन्होने 11 साल तक शिक्षा मंत्री रहे सोचने वाली बात है की गुरुकुल परम्परा को कितना नुकसान किया होगा |
मौलाना आजाद का जन्म सऊदी
अरब में 11 नवम्बर 1988 को हुआ था । मोलाना आजाद का पूरा नाम अब्दुल कलाम गुलाम मुहियाद्दीन अहमद बिन
खैरुद्दीन अल हुससैनी आजाद (Abul Kalam Ghulam Muhiyuddin Ahmed bin Khairuddin Al-Hussaini Azad) उन के पिता ने अरब की स्त्री से शादी की।
किन्तु आजाद के बारे में बात को बढ़ा -चढ़ाकर दिखाया गया । अपनी माँ के बारे में जो
बात कही ओ दोहरी बातें ही थी । वे मक्का के शेख मुहम्मद जहीर वत्री की बेटी थीं, या भतीजी? इस बारे में किसी को सटीक जानकारी नहीं है इस पर आजाद ने
अलग-अलग मौकों पर, अलग-अलग बात कही। उसके पिता
मौलाना खैरूद्दीन और परनाना मुनव्वरुद्दीन मौलाना थे,वे अरब के विश्व-प्रसिद्ध
आलिम होने की बात आजाद ने (हुमायूँ कबीर को) खुद कही
थी, जो पूरी तरह गलत थी। अरबी
की बात कौन कहे भारतीय उलेमा लिस्ट में भी आजाद के पिता या परनाना का नाम कही नहीं
मिलता। न ही मौलाना आजाद ने कभी अपने पिता और परनाना इन दोनों के बारे में लिखी किसी एक भी किताब में नाम तक बताया ।
इस शैक्षिक शून्यता के अलावा, वह कट्टरपंथी, अलगावपरस्त थे | इस्लामी राजनीति आजाद ने ही शुरू की थी | मुस्लिम तुष्टिकरण का शुरुआत यही से शुरू हुआ था | जो आगे चलकर मुस्लिम राजनीति बनी। ये वही पहले मुस्लिम नेता थे जिस ने इस्लाम को राजनीति का आधार बनाया। अपनी राजनीती को आगे बढाया बाद में कांगेस ने इसे और आगे बढ़ाते गए यहाँ पर कभी कोई उलेमा हो या मौलाना कभी राजनितिक में नही थे हमेशा राजनीति से दूर रहते थे। आजाद ने इस्लाम की राजनीति शुरू किया। मुस्लिमों के लिए देशभक्ति, राष्ट्रीय एकता और लोकतांत्रिक को ठुकराना ही उनका मूल उदेशय था। जो आज भी मुसलमान वही कर रहे है |
सन् 1912 से ही अपने खुद के अखबार ‘अल हिलाल’ से आजाद ने बहुत बड़े अभियान चलाया उसके बाद 1913 ई. में खालिस मजहबी पार्टी ‘हिजबुल्ला’ (अल्लाह की पार्टी) की गठन किया गया । इस का संगठनका मूल
उदेश्य ही इस्लामी ईमामियत था। 1920 ई. में आजाद ने यहाँ के
मुसलमानों को ‘हिजरत’ करने, यानी भारत छोड़ कर मुस्लिम देशों को प्रस्थान कर जाने का फतवा भी जारी किया था
। पर ऐसा हो नही सका यह शरीयत के अनुसार
भी था,फतवा एक राजनितिक था | उनका कहना था की सत्ता में गैर-मुस्लिम को कोई भागीदारी न देना | वे गैर मुस्लिमो को दूसरे
दर्जे के नागरिक याने ‘जिम्मी’ मानते थे |
मौलाना कोई आजाद नही थे ओ हमेशा गैर मुस्लिमो पर प्रशन उठाते थे उनकी राजनितिक भागीदारी नही देना चाहते थे | मुसलमानों के लिए कुरान एक राजनितिक तंत्र बना दिया,उसने कुरान और शरियत को इस्लाम की भागीदारी के लिए मुसलमानों को भड़काना जारी रखा ,कुरान में मौजूद इस्लामिक तानाशाही और शरियत के कठोर इस्लामिक कानून के अलावा कुछ नही दिखा, मौलाना आजाद इस्लामिक कानून के पुरजोर पक्षधर थे,
मौलाना आजाद यह एक अफगानी
मुसलमान थे,एक विदेशी कैसे देश के प्रथम शिक्षा मंत्री बन गये ये विचारनिए है ,ये
कभी देश की आज़ादी में कभी भाग नही लिए न ही कोई क्रातिकारी रहे, खिलाफत आन्दोलन
में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया था, ऐसा कहा जाता है की मोपला भी इन्ही के देख रेख
में हुआ था |
दरअसल, राष्ट्रवाद और इस्लाम का छत्तीस का आँकड़ा है। प्रोफेट मुहम्मद ने इस्लाम की भौगोलिक सीमा बाँधने की सख्त मनाही की थी। शायर इकबाल ने ठीक ही लिखा कि ‘वतनपरस्ती भी बुतपरस्ती है, जिसे इस्लाम बर्दाश्त नहीं करता’। अतः कुरान को राजनीति का आधार बना लेने पर ‘वन्दे मातरम्’ या हिन्दुओं के साथ मुसलमानो का सह-अस्तित्व नहीं चल सकता।
आजाद ने अपने बारे में भी गलत बातें फैलाई। अपने पूर्वजों के बड़े आलिम होने की बात खुद गलत प्रचारित की। आजाद की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री नेहरू को संसद में क्षमा माँगनी पड़ी थी, हम ने गलती से कह दिया था कि आजाद मिस्त्र के अल-अजहर विश्वविद्यालय में पढ़े थे। पर वे वहाँ कभी नहीं पढ़े थे। यह भूल इसलिए हुई, क्योंकि आजाद के करीबियों द्वारा लिखी जीवनियों में दशकों से यही सब लिखा हुआ था| विवाद उठने पर भी आजाद ने कभी नहीं सुधारे |
अपने आप को दिखाना चाहते थे की उनकी वंशावली बड़े अरबी आलिमों से जुड़ती हो । जबकि, यहाँ उलेमा के आधिकारिक संगठन जमीयत-उलेमा ने कभी आजाद को मौलाना, ईमाम, आदि नहीं बनाया था | फिर यह झूठे बाते क्यों गढ़े गये |
ऐसी मजहबी कट्टर मौलाना की तुलना हमारे भारत के स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, कविगुरू रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्रीअरविन्द, मदन मोहन मालवीय या क. मा. मुंशी जैसे महान कृतियों से किया जाता है ,और ऐसे मौलाना को हमारे के महान राष्ट्रीय शिक्षा’ का प्रतीक बना दिया गया, मौलाना आजाद को बनाना मूढ़ता और हिन्दू-विरोधी ‘सेक्यूलर’ राजनीति की पराकाष्ठा है नही तो और क्या है । कितना विडम्बना है की आज भी भारत के राष्ट्रवादी संघ-भाजपा के राज में भी वही सब चल रहा है।
भारत-विभाजन का विरोध क्यों किये थे, उन्हें पूरी बात कहनी चाहिए। मौलाना विभाजन के विरोधी इसलिए थे कि वे पूरा हिन्दुस्तान इस्लामी राज्य बनाना चाहते थे, न की विभाजन कर एक अलग इस्लामिक देश, उन्हें लगा था कि विभाजन के बाद तो बचा भारत में हिन्दू ही होगा, इसलिए उन्होंने विरोध किया था। उस का कारण इस्लामी कट्टरता थी, न कि भारत के प्रति प्रेम।
इसके द्वारा बनाया गया शिक्षा निति हमारे हमारी
सांस्कृतिक-शैक्षिक दुर्गति किस हद तक हो चुकी है इसकी अंदाजा किसी को अब तक नही
है, अगर किसी होता तो अभी तक कई सुधार हो चूका होता पर ऐसा हो न सका |
इतना सब कारनामो के बाद
भी मौलाना आजाद के किस कारनामे के लिए उन्हें ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ का आदर्श माना जाता है, इसकी जबाब कोई दे सकता है ,ये देश
और सनातनियो के लिए दुर्भाग्य की बात है |